श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 के श्लोक 16 और 17 --- इन श्लोकों में तत्वदर्शीयों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत् (भौतिक शरीर) का तो कोई चीर स्थायित्व नहीं है , किंतु सत् (आत्मा) अपरिवर्तित रहता है ।उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है ।जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो । उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थक नहीं है ।
आत्मा का विज्ञान -- श्रीमद भगवत गीता के अध्याय 2 के श्लोक 16 और 17 मैं आत्मा का विज्ञान समझाया गया है । जिस प्रकार परिवर्तनशील शरीर का कोई स्थायीत्व नहीं है । विभिन्न कोशिकाओं की क्रिया -प्रतिक्रिया द्वारा शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है । इस तरह शरीर में जो वृद्धि होती है उससे ही हम वृद्धावस्था तक पहुंचते हैं ,किंतु शरीर तथा मन में निरंतर परिवर्तन होने पर भी आत्मा स्थाई रहती है । यही पदार्थ तथा आत्मा का अंतर है ।
शरीर नित्य परिवर्तनशील है और आत्मा शाश्वत है। यहीं से भगवान द्वारा अज्ञान से मोह ग्रस्त जीवो को उपदेश देने का शुभारंभ होता है ।अज्ञान को हटाने के लिए आराधक और आराध्य के बीच पुन: शाश्वत संबंध स्थापित करना होता है और फिर अंश रूप जीवों तथा श्री भगवान के अंतर को समझना होता है। कोई भी व्यक्ति आत्मा के अध्ययन द्वारा परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकता है-- आत्मा तथा परमात्मा का अंतर अंश तथा पूर्ण के अंतर के रूप में है। यद्यपि शक्ति तथा शक्तिमान में कोई अंतर नहीं है किंतु शक्तिमान को परम माना जाता है और शक्ति या प्रकृति को गौण ।
अतः सारे जीव उसी तरह परमेश्वर के सदैव अधीन रहते हैं जिस तरह सेवक स्वामी के या शिष्य गुरु के अधीन रहता है। अज्ञानावस्था में ऐसे स्पष्ट ज्ञान को समझ पाना असंभव है ।अतः ऐसे अज्ञान को दूर करने के लिए सदा सर्वदा के लिए जीवो को प्रबुद्ध करने हेतु भगवान भगवत गीता का उपदेश देते हैं ।
17वें श्लोक में संपूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट वर्णन हुआ है। सभी यह समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है। प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पूरे भाग में सुख -दुख का अनुभव होता है ,किंतु चेतना कि यह व्याप्ति किसी के शरीर तक ही सीमित रहती है। एक शरीर के सुख तथा दुख का बोध दूसरे शरीर को नहीं हो पाता । अतः प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण व्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है ।
इस प्रकार आत्मा का प्रत्येक कण भौतिक परमाणुओं से भी छोटा है और ऐसे असंख्य कम है। यह अत्यंत लघु आत्म - स्फुलिंग भौतिक शरीर का मूल आधार है और इस आत्म - स्फुलिंग का प्रभाव सारे शरीर में उसी तरह व्याप्त है जिस प्रकार किसी औषधि का प्रभाव व्याप्त रहता है ।आत्मा की यह धारा सारे शरीर में चेतना के रूप में अनुभव की जाती है और यही आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण है । सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह भौतिक शरीर चेतना रहित होने पर मृतक हो जाता है और शरीर में इस चेतना को किसी भी भौतिक उपचार से वापस नहीं लाया जा सकता।
अनु आत्मा का प्रभाव पूरे शरीर में व्याप्त हो सकता है इसे हम अलग-अलग उपनिषदों द्वारा भी समझ सकते हैं --
मुंडक उपनिषद में (3;1;9 )में-- सूक्ष्म आत्मा की और अधिक विवेचना हुई है ---"आत्मा आकार में अणु तुल्य है जिसे पूर्ण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है। यह अणु -आत्मा पांच प्रकार के प्राणों में तैर रहा है (प्राण ,अपान ,व्यान ,समान तथा उदान ) ।यह हृदय के भीतर स्थित है और देवधारी जीव के पूरे शरीर में अपने प्रभाव का विस्तार करता है। जब आत्मा को पांच वायु के कल्मष से शुद्ध कर लिया जाता है तो इसका आध्यात्मिक प्रभाव प्रकट होता है ।"
मुंडक उपनिषद के ही अनुसार --- यह अणु- आत्मा प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है और चूॅकि भौतिक विज्ञानी इस अणु - आत्मा को माप सकने में असमर्थ है । अतः उनमें से कुछ यह अनुभव करते हैं कि आत्मा है ही नहीं ।व्यष्टि आत्मा तो निसंदेह परमात्मा के साथ-साथ ह्रदय में है और इसीलिए शारीरिक गतियों की सारी शक्ति शरीर के इसी भाग से उद्भूत है ।
श्वेताश्वतर उपनिषद में (5:9) --- मैं इसकी पुष्टि हुई है -" यदि बाल के अग्रभाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाए और फिर इनमें से प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाए तो इस तरह के प्रत्येक भाग की माप आत्मा का परिमाप है। "
विष्णु पुराण में (2;12; 38) में -- कहां गया है कि विष्णु तथा उनके धाम स्वयं प्रकाश से प्रकाशित है ।सत् तथा असत् शब्द आत्म तथा भौतिक पदार्थ की ही द्योतक है । सभी तत्वदर्शीयों की यह स्थापना है ।
वेदांत सूत्र-- तथा श्रीमद्भागवत में परमेश्वर को समस्त उद्भवों (प्रकाश) का मूल माना गया है ।ऐसे उद्भवों का अनुभव परा तथा अपरा प्राकृतिक -क्रमो द्वारा किया जाता है ।
हठयोग। -- का प्रयोजन विभिन्न आसनों द्वारा उन पांच प्रकार के प्राणों को नियंत्रित करना है, जो आत्मा को घेरे हुए हैं ।यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं अपितु भौतिक आकाश के बंधन से अणु आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है ।आत्मा के परमाणुओं के अनंत कण है जो माप में बाल के अगले भाग के 10,000 वें भाग के बराबर है ।
इस प्रकार अणु - आत्मा को सारे वैदिक साहित्य ने स्वीकारा है और प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव से इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है। केवल मूर्ख व्यक्ति ही इस अनु आत्मा को सर्वव्यापी विष्णु तत्व के रूप में सोच सकता है ।
व्यष्टि आत्मा तो निसंदेह परमात्मा के साथ-साथ हृदय में है और इसीलिए शारीरिक गतिरोध की सारी शक्ति शरीर के इसी भाग से उद्भूत है जो लाल रक्त कण फेफड़ों से ऑक्सीजन ले जाते हैं वे आत्मा से ही शक्ति प्राप्त करते हैं। अतः जब आत्मा इस स्थान से निकल जाती है तो रक्तो उत्पादक संलयन बंद हो जाता है। औषधि विज्ञान लाल रक्त कणों की महत्ता को तो स्वीकार करता है ,किंतु वह यह सुनिश्चित नहीं कर पाता की शक्ति का स्त्रोत आत्मा है जो भी हो औषधि विज्ञान यह स्वीकार करता है कि शरीर की सारी शक्ति का उद्गम स्थल हृदय है ।
पूर्ण आत्मा के ऐसे अणु कणों की तुलना सूर्य प्रकाश के कणों से की जाती है। इस सूर्य प्रकाश में असंख्य तेजोमय अणु होते हैं ।इसी प्रकार परमेश्वर के अंश उनकी किरणों के परमाणु स्फुलिंग है और प्रभाव या पराशक्ति कहलाते हैं।
आत: चाहे कोई वैदिक ज्ञान का अनुगामी हो या आधुनिक विज्ञान का ,वह शरीर में आत्मा के अस्तित्व को नकार नहीं सकता। भगवान ने स्वयं भगवत गीता में आत्मा के इस विज्ञान का विशद वर्णन किया है।
जय जय श्री राधे
प्रणाम
अन्नपूर्णा शर्मा
English Translation
Title - Shlok 16 and 17 of Shrimad Bhagavad Gita Adhyay 2
Shlok 16 and 17 of Shrimad Bhagavad Gita Adhyay 2 --- In these verses, the Tatvdarshis have concluded that there is no permanent permanence of Asat (Material Body), but Sat (Soul) remains unchanged. He studied the nature of these two. It is concluded by this. Only that which pervades the whole body, you consider it to be imperishable. No one is supportive of destroying that imperishable soul.
Science of the soul - The science of soul has been explained in Shlok 16 and 17 of Adhyay 2 of Shrimad Bhagwat Geeta. Just as a changing body has no permanence. The body keeps on changing every moment by the action-reaction of different cells. In this way, we reach old age only by the growth that takes place in the body, but the soul remains permanent even if there is constant change in the body and mind. This is the difference between matter and spirit.
The body is ever-changing and the soul is eternal. It is from here that the Lord begins preaching to the living beings who are enamored of ignorance. To remove ignorance, the eternal relationship between the worshiper and the adoration has to be established again and then the difference between the living beings in the form and Sri Bhagavan has to be understood. One can understand the disposition of the Supreme Lord by the study of the soul--the difference between the soul and the Supreme is as the difference between the part and the whole. Although there is no difference between Shakti and Shaktimaan, Shaktimaan is considered to be the ultimate, and Shakti or Prakriti is secondary.
Therefore, all living beings are always subject to the Supreme Lord in the same way as the servant remains under the master or the disciple is under the master. It is impossible to understand such clear knowledge in the state of ignorance. Therefore, to remove such ignorance, the Lord always preaches the Bhagavad Gita to enlighten the living beings forever and ever.
In the 17th verse, there is a more clear description of the nature of the soul pervading the entire body. Everyone understands that that which pervades the whole body is consciousness. Everyone experiences pleasure and pain in some part or the whole of the body, but the consciousness that this pervasiveness is limited to one's body. The pleasure and pain of one body cannot be perceived by another body. Therefore in everybody, there is an individual soul and the symptom of the presence of this soul is reflected by the individual consciousness.
Thus every particle of the soul is smaller than even the physical atoms and there are innumerable fewer of such. This very small self-splashing is the basic foundation of the physical body and the effect of this self-splashing pervades the whole body in the same way as the effect of any medicine pervades the whole body. And this is proof of the existence of the soul. Even a normal person can understand that this physical body becomes dead when it becomes unconscious and this consciousness in the body cannot be brought back by any physical treatment.
The effect of Anu Atman can be pervasive in the whole body, we can also understand it through different Upanishads -
In the Mundaka Upanishad (3;1;9)-- the subtle soul is further discussed---"The soul is like an atom in size which can be known by the perfect intellect. It is floating (prana, apana, vyana, samaan and udana). It is situated within the heart and extends its effect to the whole body of the deity. The spiritual effect appears."
According to the Mundaka Upanishad itself, this atomic soul is situated in the heart of every living being, and since the physicist is unable to measure this atomic soul. Therefore some of them feel that there is no soul at all. The individual soul is undoubtedly in the heart along with the Supreme Soul and that is why all the power of bodily movements emanates from this part of the body.
In the Shvetashvatara Upanishad (5:9)--- I have confirmed this - "If the hair's head is divided into one hundred parts and then each of these parts is divided into one hundred parts, then each such part The measure of the soul is the measure of the soul."
In Vishnu Purana (2; 12; 38) - Where has it been said that Vishnu and his abode are illumined by light itself. This is the establishment of all the Tatvdarshis.
In the Vedanta Sutras and Srimad Bhagavatam, the Supreme Lord is considered to be the origin of all emergencies (light). Such emergencies are experienced through the Para and Apara natural orders.
Hatha Yoga. The purpose of the various asanas is to control the five types of pranas that surround the soul. This yoga is done not for any material gain but for the liberation of the atomic soul from the bondage of the material sky. There are infinite particles of atoms which in the measure are equal to 10,000th part of the next part of the hair.
Thus the atomic soul has been accepted by all the Vedic literature and every intelligent person experiences it directly through his practical experience. Only a foolish person can think of this anu soul as the omnipresent Vishnu element.
The individual soul is undoubtedly in the heart along with the Supreme Soul and that is why all the power of physical impediment emanates from this part of the body. Therefore, when the soul leaves this place, the blood-producing fusion stops. goes. Medical science accepts the importance of red blood cells, but it cannot be sure that the source of energy is the soul.
Such atomic particles of the perfect soul are compared with the particles of sunlight. There are innumerable luminous molecules in this sunlight. Similarly, the portions of the Supreme Lord are the atomic sparks of His rays and are called Prabhava of Parashakti.
At the same time, whether one is a follower of Vedic knowledge or modern science, he cannot deny the existence of the soul in the body. The Lord himself has given a vivid description of this science of the soul in the Bhagavad Gita.
Hail Hail Lord Radhe
Greetings
Annapurna Sharma